Tuesday, December 12, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१९)




|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१९)

सप्ताहयज्ञ की विधि

असारे संसारे विषयविषसङ्‌गाकुलधियः
     क्षणार्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम् ।
किमर्थं व्यर्थं भो व्रजथ कुपथे कुत्सितकथे
     परीक्षित्साक्षी यत् श्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने ॥ १०० ॥
रसप्रवाहसंस्थेन श्रीशुकेनेरिता कथा ।
कण्ठे संबध्यते येन स वैकुण्ठप्रभुर्भवेत् ॥ १०१ ॥
इति च परमगुह्यं सर्वसिद्धान्तसिद्धं
     सपदि निगदितं ते शास्त्रपुञ्जं विलोक्य ।
जगति शुककथातो निर्मलं नास्ति किञ्चित्
     पिब परसुखहेतोर्द्वादशस्कन्धसारम् ॥ १०२ ॥
एतां यो नियततया श्रृणोति भक्त्या
     यश्चैनां कथयति शुद्धवैष्णवाग्रे ।
तौ सम्यक् विधिकरणात्फलं लभेते
     याथार्थ्यान्न हि भुवने किमप्यसाध्यम् ॥ १०३ ॥

इस असार संसारमें विषयरूप विषकी आसक्तिके कारण व्याकुल बुद्धिवाले पुरुषो ! अपने कल्याणके उद्देश्यसे आधे क्षणके लिये भी इस शुककथारूप अनुपम सुधाका पान करो। प्यारे भाइयो ! निन्दित कथाओंसे युक्त कुपथमें व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? इस कथाके कानमें प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बातके साक्षी राजा परीक्षित्‌ हैं ॥ १०० ॥ श्रीशुकदेवजी  ने प्रेमरसके प्रवाहमें स्थित होकर इस कथा को कहा था। इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है ॥ १०१ ॥ शौनकजी ! मैंने अनेक शास्त्रोंको देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है। सब शास्त्रोंके सिद्धान्तोंका यही निचोड़ है। संसारमें इस शुकशास्त्रसे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अत: आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये इस द्वादशस्कन्धरूप रसका पान करें ॥ १०२ ॥ जो पुरुष नियमपूर्वक इस कथाका भक्ति-भावसे श्रवण करता है, और जो शुद्धान्त:करण भगवद्भक्तोंके सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधिका पूरा-पूरा पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल पाते हैंउनके लिये त्रिलोकीमें कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १०३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

|| श्रीमद्भागवत माहात्म्य समाप्त ||


इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये

श्रवणविधिकथनं नाम षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१८)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१८)

सप्ताहयज्ञ की विधि

कृष्णप्रियं सकलकल्मषनाशनं च
     मुक्त्येकहेतुमिह भक्तिविलासकारि
सन्तः कथानकमिदं पिबतादरेण
     लोके हि तीर्थपरिशीलनसेवया किम् ॥ ९८ ॥
स्वपुरुषमपि वीक्ष्य पाशहस्तं
     वदति यमः किल तस्य कर्णमूले ।
परिहर भगवत्कथासु मत्तान्
     प्रभुरहमन्युनृणां न वैष्णवानाम् ॥ ९९ ॥

सूत जी कहते हैं -संतजन ! आपलोग आदरपूर्वक इस कथामृतका पान कीजिये। यह श्रीकृष्णको अत्यन्त प्रिय, सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला, मुक्ति का एकमात्र कारण और भक्ति को बढ़ानेवाला है। लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनोंका विचार करने और तीर्थों का सेवन करने से क्या होगा ॥ ९८ ॥ अपने दूतको हाथमें पाश लिये देखकर यमराज उसके कानमें कहते हैं—‘देखो, जो भगवान्‌की कथा- वार्तामें मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को ही दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवोंको नहीं॥ ९९ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१७)


|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१७)

सप्ताहयज्ञ की विधि

शुकेनोक्तं कदा राज्ञे गोकर्णेन कदा पुनः ।
सुरर्षये कदा ब्राह्मैः छिन्धि मे संशयं त्विमम् ॥ ९३ ॥

सूत उवाच –

आकृष्णनिर्गमात् त्रिंशत् वर्षाधिकगते कलौ ।
नवमीतो नभस्ये च कथारंभं शुकोऽकरोत् ॥ ९४ ॥
परीक्षित् श्रवणान्ते च कलौ वर्षशतद्वये ।
शुद्धे शुचौ नवम्यां च धेनुजोऽकथयत्कथाम् ॥ ९५ ॥
तस्मादपि कलौ प्राप्ते त्रिंशत् वर्षगते सति ।
ऊचुरूर्जे सिते पक्षे नवम्यां ब्रह्मणः सुताः ॥ ९६ ॥
इत्येत्तते समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
कलौ भागवती वार्ता भवरोगविनाशिनी ॥ ९७ ॥

शौनकजीने पूछासूतजी ! शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को, गोकर्ण ने धुन्धुकारी को और सनकादि ने नारदजीको किस-किस समय यह ग्रन्थ सुनाया थामेरा यह संशय दूर कीजिये ! ॥ ९३ ॥

सूतजीने कहाभगवान्‌ श्रीकृष्णके स्वधामगमनके बाद कलियुगके तीस वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर भाद्रपद मासकी शुक्ला नवमीको शुकदेवजीने कथा आरम्भ की थी ॥ ९४ ॥ राजा परीक्षित्‌के कथा सुननेके बाद कलियुगके दो सौ वर्ष बीत जानेपर आषाढ़ मासकी शुक्ला नवमीको गोकर्णजीने यह कथा सुनाई थी ॥ ९५ ॥ इसके पीछे कलियुगके तीस वर्ष और निकल जानेपर कार्तिक शुक्ला नवमीसे सनकादिने कथा आरम्भ की थी ॥ ९६ ॥ निष्पाप शौनकजी ! आपने जो कुछ पूछा था, उसका उत्तर मैंने आपको दे दिया। इस कलियुगमें भागवतकी कथा भवरोगकी रामबाण औषध है ॥ ९७ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१६)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१६)

सप्ताहयज्ञ की विधि

ततोऽनमत्तत् चरणेषु नारदः
     तथा शुकादीनपि तापसांश्च ।
अथ प्रहृष्टाः परिनष्टमोहाः
     सर्व ययुः पीतकथामृतास्ते ॥ ९० ॥
भक्तिः सुताभ्यां सह रक्षिता सा
     शास्त्रे स्वकीयेऽपि तदा शुकेन ।
अतो हरिर्भागवतस्य सेवनात्
     चित्तं समायाति हि वैष्णवानाम् ॥ ९१ ॥
दारिद्र्यदुःखज्वरदाहितानां
     मायापिशाचीपरिमर्दितानाम्
संसारसिन्धौ परिपातितानां
     क्षेमाय वै भागवतं प्रगर्जति ॥ ९२ ॥

इसके पश्चात् नारदजी ने भगवान्‌ तथा उनके पार्षदों के चरणों को लक्ष्य करके प्रणाम किया और फिर शुकदेव जी आदि तपस्वियों को भी नमस्कार किया। कथामृत का पान करनेसे सब लोगों- को बड़ा ही आनन्द हुआ, उनका सारा मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ९० ॥ उस समय शुकदेवजीने भक्तिको उसके पुत्रोंसहित अपने शास्त्रमें स्थापित कर दिया। इसीसे भागवतका सेवन करनेसे श्रीहरि वैष्णवोंके हृदयमें आ विराजते हैं ॥ ९१ ॥ जो लोग दरिद्रताके दु:खज्वरकी ज्वालासे दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया-पिशाचीने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्रमें डूब रहे हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत सिंहनाद कर रहा है ॥ ९२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१५)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१५)

सप्ताहयज्ञ की विधि

एवं ब्रुवाणे सति बादरायणौ
     मध्ये सभायां हरिराविरासीत् ।
प्रह्रादबल्युद्धवफाल्गुनादिभिः
     वृत्तं सुरर्षिस्तमपूजयच्च तान् ॥ ८४ ॥
दृष्ट्वा प्रसन्नं महदासने हरिं
     ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा ।
भवो भवान्या कमलासनस्तु
     तत्रागमत् कीर्तनदर्शनाय ॥ ८५ ॥
प्रह्लादस्तालधारी तरलगतितया चोद्धवः कांस्यधारी
     वीणाधारी सुरर्षि स्वरकुशलतया रागकर्तार्जुनोऽभूत् ।
इन्द्रोऽवादीन्मृदङ्‌गं जय जय सुकराः कीर्तने ते कुमारा
     यत्राग्रे भववक्ता सरसरचनया व्यासपुत्रो बभूव ॥ ८६ ॥
ननर्त मध्ये त्रिकमेव तत्र
     भक्त्यादिकानां नटवत्सुतेजसाम् ।
अलौलिकं कीर्तनमेतदीक्ष्य
     हरिः प्रसन्नोऽपि वचोऽब्रवीत् तत् ॥ ८७ ॥
मत्तो वरं भाववृताद्‌वृणुध्वं
     प्रीतः कथाकीर्तनतोऽस्मि साम्प्रतम् ।
श्रुत्वेति तद्वाक्यमतिप्रसन्नाः
     प्रेमार्द्रचित्ता हरिमूचिरे ते ॥ ८८ ॥
नगाहगाथासु च सर्वभक्तैः
     एभिस्त्वया भाव्यमिति प्रयत्‍नात् ।
मनोरथोऽयं परिपूरनीयः
     तथेति चोक्त्वान्तरधीयताच्युतः ॥ ८९ ॥

सूतजी कहते हैंश्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभाके बीचोबीच प्रह्लाद, बलि, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। तब देवर्षि नारदने भगवान्‌ और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की ॥ ८४ ॥ भगवान्‌को प्रसन्न देखकर देवर्षिने उन्हें एक विशाल सिंहासनपर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये श्रीपार्वतीजीके सहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी आये ॥ ८५ ॥ कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रह्लादजी तो चञ्चलगति (फुर्तीले) होनेके कारण करताल बजाने लगे, उद्धवजीने झाँझें उठा लीं, देवर्षि नारद वीणाकी ध्वनि करने लगे, स्वर-विज्ञान (गान-विद्या) में कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया, सनकादि बीच-बीचमें जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेवजी तरह-तरहकी सरस अङ्गभङ्गी करके भाव बताने लगे ॥ ८६ ॥ इन सबके बीचमें परम तेजस्वी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नटोंके समान नाचने लगे। ऐसा अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान्‌ प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहने लगे॥ ८७ ॥ मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे भक्तिभावने इस समय मुझे अपने वशमें कर लिया है। अत: तुमलोग मुझसे वर माँगो। भगवान्‌के ये वचन सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और प्रेमाद्र्र चित्तसे भगवान्‌से कहने लगे ॥ ८८ ॥ भगवन् ! हमारी यह अभिलाषा है कि भविष्यमें भी जहाँ-कहीं सप्ताह-कथा हो, वहाँ आप इन पार्षदोंके सहित अवश्य पधारें। हमारा यह मनोरथ पूर्ण कर दीजिये। भगवान्‌ तथास्तुकहकर अन्तर्धान हो गये ॥८९॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१४)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१४)

सप्ताहयज्ञ की विधि

धर्मप्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
     वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्‌भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
     सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ ८१ ॥
श्रीमद्‌भागवतं पुराणतिलकं यद्‌वैष्णवानां धनं
     यस्मिन् पारमहंस्यमेवममलं ज्ञानं परं गीयते ।
यत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
     तत् श्रुण्वन् प्रपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः ॥ ८२ ॥
स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः ।
अतः पिबन्तु सद्‌भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ॥ ८३ ॥

महामुनि व्यासदेवने श्रीमद्भागवत महापुराणकी रचना की है। इसमें निष्कपटनिष्काम परमधर्मका निरूपण है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषोंके जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तुका वर्णन है, जिससे तीनों तापोंकी शान्ति होती है। इसका आश्रय लेनेपर दूसरे शास्त्र अथवा साधनकी आवश्यकता नहीं रहती। जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदयमें अवरुद्ध हो जाता है ॥ ८१ ॥ यह भागवत पुराणोंका तिलक और वैष्णवोंका धन है। इसमें परमहंसोंके प्राप्य विशुद्ध ज्ञानका ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित निवृत्तिमार्गको प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मननमें तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है ॥ ८२ ॥ यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठमें भी नहीं है। इसलिये भाग्यवान् श्रोताओ ! तुम इसका खूब पान करो; इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो ॥ ८३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१३)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१३)

सप्ताहयज्ञ की विधि

सूत उवाच –

एवं ब्रुवति वै तत्र नारदे वैष्णवोत्तमे ।
परिभ्रमन् समायातः शुको योगेश्वरास्तदा ॥ ७७ ॥
तत्राययौ षोडशवार्षिकस्तदा
     व्यासात्मजो ज्ञानमहाब्धिचन्द्रमाः ।
कथावसाने निजलाभपूर्णः
     प्रेम्णा पठन् भागवतं शनैः शनैः ॥ ७८ ॥
दृष्ट्वा सदस्याः परमोरुतेजसं
     सद्यः समुत्थाय ददुर्महासनम् ।
प्रीत्या सुरर्षिस्तमपूजयत् सुखं
     स्थितोऽवदत् संश्रृणुतामलां गिरम् ॥ ७९ ॥

श्रीशुक उवाच –

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
     शुकमुखात् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं
     मुहुरको रसिका भुवि भावुकाः ॥ ८० ॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! वैष्णवश्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेवजी आ गये ॥ ७७ ॥ कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी वहाँ पधारे। सोलह वर्षकी-सी आयु, आत्मलाभसे पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागरका संवर्धन करनेके लिये चन्द्रमाके समान वे प्रेमसे धीरे-धीरे श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे ॥ ७८ ॥ परम तेजस्वी शुकदेवजीको देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसनपर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा—‘आपलोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये॥ ७९ ॥
श्रीशुकदेवजी बोलेरसिक एवं भावुक जन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका परिपक्व फल है। श्रीशुकदेवरूप शुकके मुखका संयोग होनेसे अमृतरससे परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस हैइसमें न छिलका है न गुठली। यह इसी लोकमें सुलभ है। जबतक शरीरमें चेतना रहे, तबतक आपलोग बार-बार इसका पान करें ॥ ८० ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१२)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१२)

सप्ताहयज्ञ की विधि

कुमारा ऊचुः -
इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
श्रीमद्‌भागवतेनैव भुक्तिमुक्ति करे स्थिते ॥ ६९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा ते महात्मानः प्रोचुर्भागवतीं कथाम् ।
सर्वपापहरां पुण्यां भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ॥ ७० ॥
श्रृण्वतां सर्वभूतानां सप्ताहं नियतात्मनाम् ।
यथाविधि ततो देवं तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ ७१ ॥
तदन्ते ज्ञानवैराग्य-भक्तीनां पुष्टता परा ।
तारुण्यं परमं चाभूत् सर्वभूतमनोहरम् ॥ ७२ ॥
नारदश्च कृतार्थोऽभूत् सिद्धे स्वीये मनोरथे ।
पुलकीकृतसर्वाङ्‌ग परमानन्दसम्भृतः ॥ ७३ ॥
एवं कथां समाकर्ण्य नारदो भगवत्प्रियः ।
प्रेमगद्‌गदया वाचा तानुवाच कृताञलिः ॥ ७४ ॥

नारद उवाच -
धन्योस्मि अनुगृहितोऽस्मि भवद्‌भिः करुणापरैः ।
अद्य मे भगवान् लब्धः सर्वपापहरो हरिः ॥ ७५ ॥
श्रवणं सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधनाः ।
वैकुण्ठस्थो यतः कृष्णः श्रवणाद् यस्य लभ्यते ॥ ७६ ॥

सनकादि कहते हैंनारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताहश्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं ॥ ६९ ॥
सूतजी कहते हैंशौनक जी ! यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधिपूर्वक इस सर्वपापनाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली भागवतकथा का प्रवचन किया। सब प्राणियोंने नियमपूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥ ७०-७१ ॥ कथाके अन्तमें ज्ञान-वैराग्य और भक्तिको बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवोंका चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे ॥ ७२ ॥
अपना मनोरथ पूरा होनेसे नारदजीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दसे पूर्ण हो गये ॥ ७३ ॥ इस प्रकार कथा श्रवणकर भगवान्‌के प्यारे नारदजी हाथ जोडक़र प्रेमगद्गद वाणीसे सनकादिसे कहने लगे ॥ ७४ ॥
नारदजीने कहामैं धन्य हूँ, आपलोगोंने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्वपापहारी भगवान्‌ श्रीहरिकी ही प्राप्ति हो गयी ॥ ७५ ॥ तपोधनो ! मैं श्रीमद्भागवत- श्रवणको ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवणसे वैकुण्ठ( गोलोक)-विहारी श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है ॥ ७६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.११)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.११)

सप्ताहयज्ञ की विधि

होमाशक्तौ बुधो हौम्यं दद्यात् तत्फल सिद्धये ।
नानाच्छिद्रनिरोधार्थं न्यूनताधिकतानयोः ॥ ६२ ॥
दोषयोः प्रशमार्थं च पठेत् नामसहस्रकम् ।
तेन स्यात् सफलं सर्वं नास्त्यस्मादधिकं यतः ॥ ६३ ॥
द्वादश ब्राह्मणान् पश्चात् भोजयेत् मधुपायसैः ।
दद्यात् सुवर्णं धेनुं च व्रतपूर्णत्वहेतवे ॥ ६४ ॥
शक्तौ पलत्रयमितं स्वर्णसिंहं विधाय च ।
तत्रास्य पुस्तकं स्थाप्यं लिखितं ललिताक्षरम् ॥ ६५ ॥
संपूज्य आवाहनाद्यैः तद् उपचारैः सदक्षिणम् ।
वस्त्रभूषण गन्धाद्यैः पूजिताय यतात्मने ॥ ६६ ॥
आचार्याय सुधीर्दत्त्वा मुक्तः स्याद् भवबंधनैः ।
एवं कृते विधाने च सर्वपापनिवारणे ॥ ६७ ॥
फलदं स्यात् पुराणं तु श्रीमद्‌भागवतं शुभम् ।
धर्मकामार्थमोक्षाणां साधनं स्यात् न संशयः ॥ ६८ ॥

होम करनेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके लिये ब्राह्मणोंको हवनसामग्री दान करे तथा नाना प्रकारकी त्रुटियोंको दूर करनेके लिये और विधिमें फिर जो न्यूनाधिकता रह गयी हो, उसके दोषोंकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि कोई भी कर्म इससे बढक़र नहीं है ॥ ६२-६३ ॥ फिर बारह ब्राह्मणोंको खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रतकी पूर्तिके लिये गौ और सुवर्णका दान करे ॥ ६४ ॥ सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये, उसपर सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई श्रीमद्भागवतकी पोथी रखकर उसकी आवाहनादि विविध उपचारोंसे पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्यकोउसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादिसे पूजनकरदक्षिणाके सहित समर्पण कर दे ॥ ६५-६६ ॥ यों करनेसे वह बुद्धिमान् दाता जन्म- मरणके बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताहपारायणकी विधि सब पापोंकी निवृत्ति करनेवाली है। इसका इस प्रकार ठीक-ठीक पालन करनेसे यह मङ्गलमय भागवतपुराण अभीष्ट फल प्रदान करता है तथा अर्थ, धर्म, काम और मोक्षचारोंकी प्राप्तिका साधन हो जाता हैइसमें सन्देह नहीं ॥ ६७-६८ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा भूमेः सुरेतरवरूथविमर्द...