||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१९)
सप्ताहयज्ञ की विधि
असारे
संसारे विषयविषसङ्गाकुलधियः
क्षणार्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम्
।
किमर्थं
व्यर्थं भो व्रजथ कुपथे कुत्सितकथे
परीक्षित्साक्षी यत्
श्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने ॥ १०० ॥
रसप्रवाहसंस्थेन
श्रीशुकेनेरिता कथा ।
कण्ठे
संबध्यते येन स वैकुण्ठप्रभुर्भवेत् ॥ १०१ ॥
इति
च परमगुह्यं सर्वसिद्धान्तसिद्धं
सपदि निगदितं ते शास्त्रपुञ्जं विलोक्य ।
जगति
शुककथातो निर्मलं नास्ति किञ्चित्
पिब परसुखहेतोर्द्वादशस्कन्धसारम् ॥ १०२ ॥
एतां
यो नियततया श्रृणोति भक्त्या
यश्चैनां कथयति शुद्धवैष्णवाग्रे ।
तौ
सम्यक् विधिकरणात्फलं लभेते
याथार्थ्यान्न हि भुवने किमप्यसाध्यम् ॥ १०३
॥
इस असार संसारमें
विषयरूप विषकी आसक्तिके कारण व्याकुल बुद्धिवाले पुरुषो ! अपने कल्याणके
उद्देश्यसे आधे क्षणके लिये भी इस शुककथारूप अनुपम सुधाका पान करो। प्यारे भाइयो !
निन्दित कथाओंसे युक्त कुपथमें व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ?
इस कथाके कानमें प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बातके साक्षी राजा परीक्षित् हैं ॥ १०० ॥ श्रीशुकदेवजी ने प्रेमरसके प्रवाहमें स्थित होकर इस कथा को
कहा था। इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह
वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है ॥ १०१ ॥ शौनकजी ! मैंने अनेक शास्त्रोंको देखकर आपको
यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है। सब शास्त्रोंके सिद्धान्तोंका यही निचोड़
है। संसारमें इस शुकशास्त्रसे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अत: आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये इस द्वादशस्कन्धरूप रसका पान करें ॥
१०२ ॥ जो पुरुष नियमपूर्वक इस कथाका भक्ति-भावसे श्रवण करता है, और जो शुद्धान्त:करण भगवद्भक्तोंके सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधिका पूरा-पूरा पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल पाते हैं—उनके लिये त्रिलोकीमें कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १०३ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
|| श्रीमद्भागवत माहात्म्य
समाप्त ||
इति
श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
श्रवणविधिकथनं
नाम षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥