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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१४)
सप्ताहयज्ञ की विधि
धर्मप्रोज्झितकैतवोऽत्र
परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं
तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते
महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः
शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥ ८१ ॥
श्रीमद्भागवतं
पुराणतिलकं यद्वैष्णवानां धनं
यस्मिन् पारमहंस्यमेवममलं ज्ञानं परं गीयते
।
यत्र
ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
तत् श्रुण्वन् प्रपठन् विचारणपरो भक्त्या
विमुच्येन्नरः ॥ ८२ ॥
स्वर्गे
सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः ।
अतः
पिबन्तु सद्भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ॥ ८३ ॥
महामुनि व्यासदेवने
श्रीमद्भागवत महापुराणकी रचना की है। इसमें निष्कपट—निष्काम परमधर्मका निरूपण है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषोंके जानने
योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तुका वर्णन है, जिससे तीनों
तापोंकी शान्ति होती है। इसका आश्रय लेनेपर दूसरे शास्त्र अथवा साधनकी आवश्यकता
नहीं रहती। जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदयमें अवरुद्ध हो जाता है ॥ ८१ ॥ यह भागवत
पुराणोंका तिलक और वैष्णवोंका धन है। इसमें परमहंसोंके प्राप्य विशुद्ध ज्ञानका ही
वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित
निवृत्तिमार्गको प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मननमें तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है ॥
८२ ॥ यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास
और वैकुण्ठमें भी नहीं है। इसलिये भाग्यवान् श्रोताओ ! तुम इसका खूब पान करो;
इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो ॥ ८३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड
1535 से
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