||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१२)
सप्ताहयज्ञ की विधि
कुमारा
ऊचुः -
इति
ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
श्रीमद्भागवतेनैव
भुक्तिमुक्ति करे स्थिते ॥ ६९ ॥
सूत
उवाच -
इत्युक्त्वा
ते महात्मानः प्रोचुर्भागवतीं कथाम् ।
सर्वपापहरां
पुण्यां भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ॥ ७० ॥
श्रृण्वतां
सर्वभूतानां सप्ताहं नियतात्मनाम् ।
यथाविधि
ततो देवं तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ ७१ ॥
तदन्ते
ज्ञानवैराग्य-भक्तीनां पुष्टता परा ।
तारुण्यं
परमं चाभूत् सर्वभूतमनोहरम् ॥ ७२ ॥
नारदश्च
कृतार्थोऽभूत् सिद्धे स्वीये मनोरथे ।
पुलकीकृतसर्वाङ्ग
परमानन्दसम्भृतः ॥ ७३ ॥
एवं
कथां समाकर्ण्य नारदो भगवत्प्रियः ।
प्रेमगद्गदया
वाचा तानुवाच कृताञलिः ॥ ७४ ॥
नारद
उवाच -
धन्योस्मि
अनुगृहितोऽस्मि भवद्भिः करुणापरैः ।
अद्य
मे भगवान् लब्धः सर्वपापहरो हरिः ॥ ७५ ॥
श्रवणं
सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधनाः ।
वैकुण्ठस्थो
यतः कृष्णः श्रवणाद् यस्य लभ्यते ॥ ७६ ॥
सनकादि कहते हैं—नारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताहश्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं ॥ ६९ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनक जी ! यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधिपूर्वक इस सर्वपापनाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली भागवतकथा का प्रवचन किया। सब प्राणियोंने नियमपूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥ ७०-७१ ॥ कथाके अन्तमें ज्ञान-वैराग्य और भक्तिको बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवोंका चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे ॥ ७२ ॥
अपना मनोरथ पूरा
होनेसे नारदजीको भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके
सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दसे पूर्ण हो गये ॥ ७३ ॥ इस प्रकार कथा
श्रवणकर भगवान्के प्यारे नारदजी हाथ जोडक़र प्रेमगद्गद वाणीसे सनकादिसे कहने लगे ॥
७४ ॥
नारदजीने कहा—मैं धन्य हूँ, आपलोगोंने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्वपापहारी भगवान् श्रीहरिकी ही प्राप्ति हो गयी ॥ ७५ ॥ तपोधनो ! मैं श्रीमद्भागवत- श्रवणको ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवणसे वैकुण्ठ( गोलोक)-विहारी श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है ॥ ७६ ॥
नारदजीने कहा—मैं धन्य हूँ, आपलोगोंने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्वपापहारी भगवान् श्रीहरिकी ही प्राप्ति हो गयी ॥ ७५ ॥ तपोधनो ! मैं श्रीमद्भागवत- श्रवणको ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवणसे वैकुण्ठ( गोलोक)-विहारी श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है ॥ ७६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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