॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
ध्यान-विधि
और भगवान्के विराट्स्वरूपका वर्णन
रजस्तमोभ्यां
आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया
धीरो हंति या तत्कृतं मलम् ॥ २० ॥
यस्यां
सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु
संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१ ॥
राजोवाच
॥
यथा
सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी
वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
जितासनो
जितश्वासो जितसङ्गो जितेंद्रियः ।
स्थूले
भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद् धिया ॥ २३ ॥
विशेषस्तस्य
देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं
दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४ ॥
अण्डकोशे
शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः
पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५ ॥
यदि
भगवान्का ध्यान करते समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाय तो
घबराये नहीं। धैर्यके साथ योगधारणाके द्वारा उसे वशमें करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा
स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंलमय आश्रय (भगवान्)को देखता है,
तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है॥२१॥
परीक्षित्ने
पूछा—ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका
क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल
मिटा देती है ? ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! आसन, श्वास, आसक्ति
और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्के स्थूल
रूपमें लगाना चाहिये ॥ २३ ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा—सबका-सब-जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ॥ २४ ॥ जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान्
हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी
धारणा की जाती है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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