Tuesday, March 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

ध्यान-विधि और भगवान्‌के विराट्स्वरूपका वर्णन

रजस्तमोभ्यां आक्षिप्तं विमूढं मन आत्मनः ।
यच्छेद्धारणया धीरो हंति या तत्कृतं मलम् ॥ २० ॥
यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्तिलक्षणः ।
आशु संपद्यते योग आश्रयं भद्रमीक्षतः ॥ २१ ॥

राजोवाच ॥
यथा सन्धार्यते ब्रह्मन् धारणा यत्र सम्मता ।
यादृशी वा हरेदाशु पुरुषस्य मनोमलम् ॥ २२ ॥

श्रीशुक उवाच ।
जितासनो जितश्वासो जितसङ्गो जितेंद्रियः ।
स्थूले भगवतो रूपे मनः सन्धारयेद् धिया ॥ २३ ॥
विशेषस्तस्य देहोऽयं स्थविष्ठश्च स्थवीयसाम् ।
यत्रेदं दृश्यते विश्वं भूतं भव्यं भवच्च सत् ॥ २४ ॥
अण्डकोशे शरीरेऽस्मिन् सप्तावरणसंयुते ।
वैराजः पुरुषो योऽसौ भगवान् धारणाश्रयः ॥ २५ ॥

यदि भगवान्‌का ध्यान करते समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्यके साथ योगधारणाके द्वारा उसे वशमें करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ॥ २० ॥ धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मंलमय आश्रय (भगवान्‌)को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है॥२१॥
परीक्षित्‌ने पूछाब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ॥ २२ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान्‌के स्थूल रूपमें लगाना चाहिये ॥ २३ ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगासबका-सब-जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्‌का स्थूल-से-स्थूल और विराट् शरीर है ॥ २४ ॥ जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिइन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान्‌ हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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