||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१५)
सप्ताहयज्ञ की विधि
एवं
ब्रुवाणे सति बादरायणौ
मध्ये सभायां हरिराविरासीत् ।
प्रह्रादबल्युद्धवफाल्गुनादिभिः
वृत्तं सुरर्षिस्तमपूजयच्च तान् ॥ ८४ ॥
दृष्ट्वा
प्रसन्नं महदासने हरिं
ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा ।
भवो
भवान्या कमलासनस्तु
तत्रागमत् कीर्तनदर्शनाय ॥ ८५ ॥
प्रह्लादस्तालधारी
तरलगतितया चोद्धवः कांस्यधारी
वीणाधारी सुरर्षि स्वरकुशलतया
रागकर्तार्जुनोऽभूत् ।
इन्द्रोऽवादीन्मृदङ्गं
जय जय सुकराः कीर्तने ते कुमारा
यत्राग्रे भववक्ता सरसरचनया व्यासपुत्रो
बभूव ॥ ८६ ॥
ननर्त
मध्ये त्रिकमेव तत्र
भक्त्यादिकानां नटवत्सुतेजसाम् ।
अलौलिकं
कीर्तनमेतदीक्ष्य
हरिः प्रसन्नोऽपि वचोऽब्रवीत् तत् ॥ ८७ ॥
मत्तो
वरं भाववृताद्वृणुध्वं
प्रीतः कथाकीर्तनतोऽस्मि साम्प्रतम् ।
श्रुत्वेति
तद्वाक्यमतिप्रसन्नाः
प्रेमार्द्रचित्ता हरिमूचिरे ते ॥ ८८ ॥
नगाहगाथासु
च सर्वभक्तैः
एभिस्त्वया भाव्यमिति प्रयत्नात् ।
मनोरथोऽयं
परिपूरनीयः
तथेति चोक्त्वान्तरधीयताच्युतः ॥ ८९ ॥
सूतजी कहते हैं—श्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभाके बीचोबीच प्रह्लाद, बलि, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। तब देवर्षि नारदने भगवान् और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की ॥ ८४ ॥ भगवान्को प्रसन्न देखकर देवर्षिने उन्हें एक विशाल सिंहासनपर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये श्रीपार्वतीजीके सहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी आये ॥ ८५ ॥ कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रह्लादजी तो चञ्चलगति (फुर्तीले) होनेके कारण करताल बजाने लगे, उद्धवजीने झाँझें उठा लीं, देवर्षि नारद वीणाकी ध्वनि करने लगे, स्वर-विज्ञान (गान-विद्या) में कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया, सनकादि बीच-बीचमें जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेवजी तरह-तरहकी सरस अङ्गभङ्गी करके भाव बताने लगे ॥ ८६ ॥ इन सबके बीचमें परम तेजस्वी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नटोंके समान नाचने लगे। ऐसा अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहने लगे— ॥ ८७ ॥ ‘मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे भक्तिभावने इस समय मुझे अपने वशमें कर लिया है। अत: तुमलोग मुझसे वर माँगो’। भगवान्के ये वचन सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और प्रेमाद्र्र चित्तसे भगवान्से कहने लगे ॥ ८८ ॥ ‘भगवन् ! हमारी यह अभिलाषा है कि भविष्यमें भी जहाँ-कहीं सप्ताह-कथा हो, वहाँ आप इन पार्षदोंके सहित अवश्य पधारें। हमारा यह मनोरथ पूर्ण कर दीजिये’। भगवान् ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये ॥८९॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड
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