||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.१२)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
दृष्टो
दिग्विजये राज्ञा दीनवत् शरणं गतः ।
न
मया मारणीयोऽयं सारंग इव सरभुक् ॥ ६७ ॥
यत्फलं
नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
तत्फलं
लभते सम्यक् कलौ केशवकीर्तनात् ॥ ६८ ॥
एकाकारं
कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम् ।
विष्णुरातः
स्थापितवान् कलिजानां सुखाय च ॥ ६९ ॥
कुकर्माचरनात्सारः
सर्वतो निर्गतोऽधुना ।
पदार्थाः
संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा ॥ ७० ॥
विप्रैर्भागवती
वार्ता गेहे गेहे जने जने ।
कारिता
कणलोभेन कथासारस्ततो गतः ॥ ७१ ॥
अत्युग्रभूरिकर्माणो
नास्तिका रौरवा जनाः ।
तेऽपि
तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः ॥ ७२ ॥
कामक्रोध
महालोभ तृष्णाव्याकुलचेतसः ।
तेऽपि
तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः ॥ ७३ ॥
मनसश्चाजयात्
लोभाद् दंभात् पाखण्डसंश्रयात् ।
शास्त्रान्
अभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम् ॥ ७४ ॥
पण्डितास्तु
कलत्रेण रमन्ते महिषा इव ।
पुत्रस्योत्पादने
दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ॥ ७५ ॥
न
हि वैष्णवता कुत्र संप्रदायपुरःसरा ।
एवं
प्रलयतां प्राप्तो वस्तुसारः स्थले स्थले ॥ ७६ ॥
अयं
तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् ।
अतस्तु
पुण्डरीकाक्षः सहते निकटे स्थितः ॥ ७७ ॥
दिग्विजयके
समय राजा परीक्षित्की दृष्टि पडऩेपर कलियुग दीनके समान उनकी शरणमें आया। भ्रमरके
समान सारग्राही राजाने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये ॥ ६७ ॥
क्योंकि जो फल तपस्या,
योग एवं समाधिसे भी नहीं मिलता, कलियुगमें वही
फल श्रीहरिकीर्तनसे ही भली-भाँति मिल जाता है ॥ ६८ ॥ इस प्रकार सारहीन होनेपर भी
उसे इस एक ही दृष्टिसे सार- युक्त देखकर उन्होंने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले
जीवोंके सुखके लिये ही इसे रहने दिया था ॥ ६९ ॥इस समय लोगोंके कुकर्ममें प्रवृत्त
होनेके कारण सभी वस्तुओंका सार निकल गया है और पृथ्वीके सारे पदार्थ बीजहीन भूसीके
समान हो गये हैं ॥ ७० ॥ ब्राह्मण केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जनको
भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथा का सार चला गया ॥ ७१
॥ तीर्थोंमें नाना प्रकारके अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक
और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी प्रभाव
जाता रहा ॥ ७२ ॥ जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णासे तपता रहता है, वे भी तपस्याका
ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तपका भी सार निकल गया ॥ ७३ ॥ मनपर
काबू न होनेके कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेनेके
कारण एवं शास्त्रका अभ्यास न करनेसे ध्यानयोगका फल मिट गया ॥ ७४ ॥ पण्डितोंकी यह
दशा है कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करनेकी ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधनमें
वे सर्वथा अकुशल हैं ॥ ७५ ॥ सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं
देखनेमें नहीं आती। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है ॥ ७६ ॥
यह तो इस युगका स्वभाव ही है इसमें किसीका दोष नहीं है। इसीसे पुण्डरीकाक्ष भगवान्
बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं ॥ ७७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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