Tuesday, December 12, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य छठा अध्याय (पोस्ट.१९)




|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१९)

सप्ताहयज्ञ की विधि

असारे संसारे विषयविषसङ्‌गाकुलधियः
     क्षणार्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम् ।
किमर्थं व्यर्थं भो व्रजथ कुपथे कुत्सितकथे
     परीक्षित्साक्षी यत् श्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने ॥ १०० ॥
रसप्रवाहसंस्थेन श्रीशुकेनेरिता कथा ।
कण्ठे संबध्यते येन स वैकुण्ठप्रभुर्भवेत् ॥ १०१ ॥
इति च परमगुह्यं सर्वसिद्धान्तसिद्धं
     सपदि निगदितं ते शास्त्रपुञ्जं विलोक्य ।
जगति शुककथातो निर्मलं नास्ति किञ्चित्
     पिब परसुखहेतोर्द्वादशस्कन्धसारम् ॥ १०२ ॥
एतां यो नियततया श्रृणोति भक्त्या
     यश्चैनां कथयति शुद्धवैष्णवाग्रे ।
तौ सम्यक् विधिकरणात्फलं लभेते
     याथार्थ्यान्न हि भुवने किमप्यसाध्यम् ॥ १०३ ॥

इस असार संसारमें विषयरूप विषकी आसक्तिके कारण व्याकुल बुद्धिवाले पुरुषो ! अपने कल्याणके उद्देश्यसे आधे क्षणके लिये भी इस शुककथारूप अनुपम सुधाका पान करो। प्यारे भाइयो ! निन्दित कथाओंसे युक्त कुपथमें व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? इस कथाके कानमें प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बातके साक्षी राजा परीक्षित्‌ हैं ॥ १०० ॥ श्रीशुकदेवजी  ने प्रेमरसके प्रवाहमें स्थित होकर इस कथा को कहा था। इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है ॥ १०१ ॥ शौनकजी ! मैंने अनेक शास्त्रोंको देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है। सब शास्त्रोंके सिद्धान्तोंका यही निचोड़ है। संसारमें इस शुकशास्त्रसे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अत: आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये इस द्वादशस्कन्धरूप रसका पान करें ॥ १०२ ॥ जो पुरुष नियमपूर्वक इस कथाका भक्ति-भावसे श्रवण करता है, और जो शुद्धान्त:करण भगवद्भक्तोंके सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधिका पूरा-पूरा पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल पाते हैंउनके लिये त्रिलोकीमें कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १०३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

|| श्रीमद्भागवत माहात्म्य समाप्त ||


इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये

श्रवणविधिकथनं नाम षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥


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