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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.१३)
सप्ताहयज्ञ की विधि
सूत
उवाच –
एवं
ब्रुवति वै तत्र नारदे वैष्णवोत्तमे ।
परिभ्रमन्
समायातः शुको योगेश्वरास्तदा ॥ ७७ ॥
तत्राययौ
षोडशवार्षिकस्तदा
व्यासात्मजो ज्ञानमहाब्धिचन्द्रमाः ।
कथावसाने
निजलाभपूर्णः
प्रेम्णा पठन् भागवतं शनैः शनैः ॥ ७८ ॥
दृष्ट्वा
सदस्याः परमोरुतेजसं
सद्यः समुत्थाय ददुर्महासनम् ।
प्रीत्या
सुरर्षिस्तमपूजयत् सुखं
स्थितोऽवदत् संश्रृणुतामलां गिरम् ॥ ७९ ॥
श्रीशुक
उवाच –
निगमकल्पतरोर्गलितं
फलं
शुकमुखात् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत
भागवतं रसमालयं
मुहुरको रसिका भुवि भावुकाः ॥ ८० ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! वैष्णवश्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेवजी आ गये ॥ ७७ ॥ कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी वहाँ पधारे। सोलह वर्षकी-सी आयु, आत्मलाभसे पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागरका संवर्धन करनेके लिये चन्द्रमाके समान वे प्रेमसे धीरे-धीरे श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे ॥ ७८ ॥ परम तेजस्वी शुकदेवजीको देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसनपर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा—‘आपलोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये’ ॥ ७९ ॥
श्रीशुकदेवजी बोले—रसिक एवं भावुक जन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका परिपक्व फल है। श्रीशुकदेवरूप शुकके मुखका संयोग होनेसे अमृतरससे परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस है— इसमें न छिलका है न गुठली। यह इसी लोकमें सुलभ है। जबतक शरीरमें चेतना रहे, तबतक आपलोग बार-बार इसका पान करें ॥ ८० ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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