॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१५)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
पूर्तेन
तपसा यज्ञैः दानैर्योगसमाधिना ।
राद्धं
निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिः तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१ ॥
अहमात्मात्मनां
धातः प्रेष्ठः सन् प्रेयसामपि ।
अतो
मयि रतिं कुर्याद् देहादिर्यत्कृते प्रियः ॥ ४२ ॥
सर्ववेदमयेनेदं
आत्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।
प्रजाः
सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते ॥ ४३ ॥
मैत्रेय
उवाच –
तस्मा
एवं जगत्स्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ।
व्यज्येदं
स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥ ४४ ॥
तत्त्ववेत्ताओंका
मत है कि पूर्त,
तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनोंसे प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है,
वह मेरी प्रसन्नता ही है ॥ ४१ ॥ विधाता ! मैं आत्माओं का भी आत्मा
और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं।
अत: मुझसे ही प्रेम करना चाहिये ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी ! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस
समय मुझ में लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे
उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो ॥ ४३ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—प्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को इस
प्रकार जगत् की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूपसे अदृश्य हो गये ॥ ४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से