॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
श्रीभगवानुवाच
–
मा
वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयाऽऽपादितं
ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥
भूयस्त्वं
तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यां
अन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यसि अपावृतान् ॥ ३० ॥
तत
आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।
द्रष्टासि
मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकान् त्वमात्मनः ॥ ३१ ॥
यदा
तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत
मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२ ॥
यदा
रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।
स्वरूपेण
मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—वेदगर्भ ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचना
के उद्यम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे
तो मैं पहले ही कर चुका हूँ ॥ २९ ॥ तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञानका
अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकोंको स्पष्टतया अपने अन्त:करणमें देखोगे ॥ ३०
॥ फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपनेमें मुझको व्याप्त
देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ॥ ३१ ॥ जिस समय जीव काष्ठमें
व्याप्त अग्रिके समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जब वह अपनेको भूत,
इन्द्रिय, गुण और अन्त:करणसे रहित तथा
स्वरूपत: मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता
है ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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