॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
ब्रह्मोवाच
–
नातिप्रसीदति
तथोपचितोपचारैः ।
आराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको
।
नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२ ॥
पुंसामतो
विविधकर्मभिरध्वराद्यैः ।
दानेन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।
आराधनं
भगवतस्तव सत्क्रियार्थो ।
धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद् ध्रियते न यत्र ॥ १३
॥
शश्वत्स्वरूपमहसैव
निपीतभेद ।
मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्भवस्थितिलयेषु
निमित्तलीला ।
रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४ ॥
भगवन्
! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्त:करणों में स्थित उनके परम हितकारी
अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर
भाँति-भाँतिकी विपुल सामग्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते
हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १२ ॥ जो कर्म आपको
अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता—वह अक्षय हो जाता है। अत: नाना प्रकारके कर्म—यज्ञ,
दान, कठिन तपस्या और व्रतादिके द्वारा आपकी
प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है; क्योंकि
आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ॥ १३ ॥ आप सर्वदा अपने
स्वरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा
ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार
करता हूँ। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो
मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अत: आप परमेश्वरको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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