॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
मैत्रेय
उवाच -
स्वसम्भवं
निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।
यावन्मनोवचः
स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य
ब्रह्मणो मधुसूदनः ।
विषण्णचेतसं
तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥
लोकसंस्थानविज्ञान
आत्मनः परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया
वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधिके द्वारा
अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान्को देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्तिके अनुसार
उनकी स्तुति कर ब्रह्माजी थके-से होकर मौन हो गये ॥ २६ ॥ श्रीमधुसूदन भगवान्ने
देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोकरचना के विषय में
कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको
जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ॥ २७-२८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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