॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
ब्रह्मोवाच
–
एष
प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्या ।
यद्यत् करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।
तस्मिन्स्वविक्रममिदं
सृजतोऽपि चेतो ।
युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३ ॥
नाभिह्रदादिह
सतोऽम्भसि यस्य पुंसो ।
विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।
रूपं
विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे ।
मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४ ॥
सोऽसौ
अदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध ।
प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय
विश्वविजयाय च नो विषादं ।
माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५ ॥
आप
भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप
जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे,
मेरा यह जगत् की रचना करने का
उद्यम भी उन्हीं में से एक है। अत: इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें—शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टिरचनाविषयक
अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ॥ २३ ॥ प्रभो ! इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति
परमपुरुष के नाभि-कमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही
विज्ञानशक्ति; अत: इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते
समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो ॥ २४ ॥ आप अपार करुणामय
पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और
शेष-शय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर
कीजिये ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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