॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
वाराह
अवतार की कथा
तस्मिन्प्रसन्ने
सकलाशिषां प्रभौ
किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या
भजतां गुहाशयः
स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९ ॥
को
नाम लोके पुरुषार्थसारवित्
पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय
कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-
महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥
भगवान्
तो सभी कामनाओं को पूर्ण करनेमें समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर
संसारमें क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ?
जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें
तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥ ४९ ॥ अरे ! संसार में
पशुओं को छोडक़र अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देनेवाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से किसी भी
अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ॥
५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से