॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
वाराह
अवतार की कथा
ऋषय
ऊचुः
जितं
जितं तेऽजित यज्ञभावन
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्
रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः
तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥
रूपं
तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि
यस्य त्वचि बर्हिरोम-
स्वाज्यं दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥
३५ ॥
स्रुक्तुण्ड
आसीत्स्रुव ईश नासयोः
इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये
ग्रसने ग्रहास्तु ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥
ऋषियोंने
कहा—भगवान् अजित् ! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते ! आप
अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है।
आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वीका उद्धार करने के लिये ही
यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है ॥३४॥ देव !
दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है । इसकी त्वचामें गायत्री आदि छन्द, रोमावलीमें कुश, नेत्रोंमें घृत तथा चारों चरणोंमें
होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चारों ऋत्विजोंके कर्म हैं ॥ ३५ ॥ ईश ! आपकी थूथनी (मुखके अग्रभाग)में
स्रुक् है, नासिकाछिद्रों में स्रुवा है, उदरमें इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानोंमें चमस है,
मुखमें प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्रमें ग्रह
(सोमपात्र) है। भगवन् ! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है
॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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