॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
वाराह
अवतार की कथा
इत्यभिध्यायतो
नासा विवरात्सहसानघ ।
वराहतोको
निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥ १८ ॥
तस्याभिपश्यतः
खस्थः क्षणेन किल भारत ।
गजमात्रः
प्रववृधे तदद्भुतं अभून्महत् ॥ १९ ॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः
कुमारैर्मनुना सह ।
दृष्ट्वा
तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥ २० ॥
किमेतत्सौकरव्याजं
सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् ।
अहो
बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥ २१ ॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः
क्षणाद्गण्डशिलासमः ।
अपि
स्विद्भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥ २२ ॥
इति
मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः ।
भगवान्
यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३ ॥
ब्रह्माणं
हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन
ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥ २४ ॥
निशम्य
ते घर्घरितं स्वखेद
क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते
त्रिभिः
पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५ ॥
निष्पाप
विदुरजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात्
अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला ॥ १८ ॥ भारत ! बड़े आश्चर्यकी बात तो
यही हुई कि आकाशमें खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजीके देखते-ही-देखते बड़ा होकर
क्षणभरमें हाथीके बराबर हो गया ॥ १९ ॥ उस विशाल वराह-मूर्तिको देखकर मरीचि आदि
मुनिजन,सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह-तरहके विचार करने लगे—॥ २०॥ अहो ! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ?
कैसा आश्चर्य है ! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था ॥ २१ ॥ पहले तो
यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक
क्षणमें ही बड़ी भारी शिलाके समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हमलोगों के
मनको मोहित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि
भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे ॥ २३ ॥ सर्वशक्तिमान् श्रीहरिने अपनी
गर्जनासे दिशाओंको प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको हर्षसे भर
दिया ॥ २४ ॥ अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराहभगवान् की घुरघुराहटको सुनकर वे
जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम
पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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