॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
वाराह
अवतार की कथा
मैत्रेय
उवाच ।
इत्युपस्थीयमानस्तैः
मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६
॥
स
इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः ।
रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥
४७ ॥
य
एवमेतां हरिमेधसो हरेः
कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत
भक्त्या श्रवयेत वोशतीं
जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियोंके इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा
करनेवाले वराहभगवान् ने अपने खुरों से जलको स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित
कर दिया ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जलपर रखकर वे
विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ४७ ॥
विदुरजी
! भगवान्के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब
प्रकारके पाप-तापोंको दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को
भक्तिभावसे सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान्
अन्तस्तलसे बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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