॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
वाराह
अवतार की कथा
मनुरुवाच
।
आदेशेऽहं
भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थानं
त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥ १४ ॥
यदोकः
सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महाम्भसि ।
अस्या
उद्धरणे यत्नो देव देव्या विधीयताम् ॥ १५ ॥
मैत्रेय
उवाच ।
परमेष्ठी
त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां
समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥ १६ ॥
सृजतो
मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र
किमनुष्ठेयं अस्माभिः सर्गयोजितैः ।
यस्याहं
हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७ ॥
मनुजी
ने कहा—पापका नाश करनेवाले पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा;
किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये
स्थान बतलाइये ॥१४॥ देव ! सब जीवों का निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में
डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—पृथ्वीको इस प्रकार अथाह जलमें डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देरतक मन में यह
सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ ॥ १६ ॥ जिस समय मैं लोकरचना में
लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली
गयी। हम लोग सृष्टिकार्य में नियुक्त हैं, अत: इसके लिये हमें
क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके
सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि
ही मेरा यह काम पूरा करें’ ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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