॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
वाराह
अवतार की कथा
दंष्ट्राग्रकोट्या
भगवंस्त्वया धृता
विराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा
वनान्निःसरतो दता धृता
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥
त्रयीमयं
रूपमिदं च सौकरं
भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति
शृङ्गोढघनेन भूयसा
कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥
संस्थापयैनां
जगतां सतस्थुषां
लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।
विधेम
चास्यै नमसा सह त्वया
यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥
पृथ्वीको
धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ोंकी नोकपर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी
सुशोभित हो रही है,
जैसे वनमें से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर
पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ ४० ॥ आपके दाँतोंपर रखे हुए भूमण्डलके सहित आपका यह
वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरोंपर छायी
हुई मेघमालासे कुलपर्वतकी शोभा होती है ॥ ४१ ॥ नाथ ! चराचर जीवोंके सुखपूर्वक
रहनेके लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वीको जलपर स्थापित कीजिये। आप जगत् के
पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण- शक्तिरूप अपना तेज
स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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