॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
मन्वन्तरादि
कालविभाग का वर्णन
अयं
तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।
वाराह
इति विख्यातो यत्रासीत् शूकरो हरिः ॥ ३६ ॥
कालोऽयं
द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य
अनादेर्जगदात्मनः ॥ ३७ ॥
कालोऽयं
परमाण्वादिः द्विपरार्धान्त ईश्वरः ।
नैवेशितुं
प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम् ॥ ३८ ॥
विकारैः
सहितो युक्तैः विशेषादिभिरावृतः ।
आण्डकोशो
बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः ॥ ३९ ॥
दशोत्तराधिकैर्यत्र
प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये
कोटिशो ह्यण्डराशयः ॥ ४० ॥
तदाहुरक्षरं
ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
विष्णोर्धाम
परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः ॥ ४१ ॥
विदुरजी
! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्धका आरम्भक
बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प नाम से विख्यात है, इसमें
भगवान् ने सूकररूप धारण किया था ॥ ३६ ॥ यह दो परार्धका काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा
श्रीहरिका एक निमेष माना जाता है ॥ ३७ ॥ यह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला
हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरिपर किसी प्रकारकी प्रभुता नहीं
रखता। यह तो देहादिमें अभिमान रखनेवाले जीवोंका ही शासन करनेमें समर्थ है ॥ ३८ ॥ प्रकृति,
महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्र—इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और
पञ्चभूत—इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश
भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस
गुने सात आवरण हैं। उन सब के सहित यह जिस में परमाणु के समान पड़ा हुआ दीखता है और
जिस में ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड- राशियाँ हैं, वह इन
प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष
परमात्मा श्रीविष्णुभगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है ॥ ३९—४१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से