॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
दस
प्रकार की सृष्टि का वर्णन
देवसर्गश्चाष्टविधो
विबुधाः पितरोऽसुराः ।
गन्धर्वाप्सरसः
सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः ॥ २७ ॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च
विद्याध्राः किन्नरादयः ।
दशैते
विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्कृताः ॥ २८ ॥
अतः
परं प्रवक्ष्यामि वंशान् मन्वन्तराणि च ।
एवं
रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः ।
सृजत्यमोघसङ्कल्प
आत्मैवात्मानमात्मना ॥ २९ ॥
देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा,
यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेदसे देवसृष्टि आठ
प्रकारकी है। विदुरजी ! इस प्रकार जगत्- कर्ता श्रीब्रह्माजी की रची हुई यह दस
प्रकारकी सृष्टि मैंने तुमसे कही ॥ २७-२८ ॥ अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन
करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसङ्कल्प भगवान् हरि ही ब्रह्माके रूपसे
प्रत्येक कल्पके आदिमें रजोगुणसे व्याप्त होकर स्वयं ही जगत्के रूपमें अपनी ही
रचना करते हैं ॥ २९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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