॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - ग्यारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
मन्वन्तरादि
कालविभाग का वर्णन
अणुर्द्वौ
परमाणू स्यात् त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करश्म्यवगतः
खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५ ॥
त्रसरेणुत्रिकं
भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः ।
शतभागस्तु
वेधः स्यात् तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः ॥ ६ ॥
निमेषस्त्रिलवो
ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः ।
क्षणान्
पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च ॥ ७ ॥
लघूनि
वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका ।
ते
द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम् ॥ ८ ॥
दो
परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो
झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है ॥
५ ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे
सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन
वेधका एक ‘लव’ होता है ॥ ६ ॥ तीन लवको
एक ‘निमेष’ और तीन निमेषको एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षणकी एक ‘काष्ठा’ होती है और पंद्रह काष्ठाका एक ‘लघु’ ॥ ७ ॥ पंद्रह लघुकी एक ‘नाडिका’
(दण्ड) कही जाती है, दो नाडिकाका एक ‘मुहूत्र्त’ होता है और दिनके घटने-बढऩेके अनुसार
(दिन एवं रात्रिकी दोनों सन्धियोंके दो मुहूत्र्तोंको छोडक़र) छ: या सात नाडिकाका
एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्यके
दिन या रातका चौथा भाग होता है ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment