॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
सृष्टि-वर्णन
पुरुषस्य
मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो
भगवतः पद्भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत ॥ ३७ ॥
भूर्लोकः
कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा
स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ३८ ॥
ग्रीवायां
जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः
सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ३९ ॥
तत्कट्यां
चातलं कॢप्तं ऊरूभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां
सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ४० ॥
महातलं
तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं
पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ४१ ॥
भूर्लोकः
कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः
कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ४२ ॥
(ब्रह्माजी
कहते हैं) ब्राह्मण इस विराट् पुरुषका मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय
हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ ३७
॥ पैंरोंसे लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोककी कल्पना की गयी है; नाभिमें भुवर्लोककी, हृदयमें स्वर्लोककी और
परमात्माके वक्ष:स्थलमें महर्लोककी कल्पना की गयी है ॥ ३८ ॥ उसके गलेमें जनलोक,
दोनों स्तनोंमें तपोलोक और मस्तकमें ब्रह्माका नित्य निवासस्थान
सत्यलोक है ॥ ३९ ॥ उस विराट् पुरुषकी कमरमें अतल, जाँघोंमें
वितल, घुटनोंमें पवित्र सुतललोक और जङ्घाओंमें तलातलकी
कल्पना की गयी है ॥ ४० ॥ एड़ीके ऊपरकी गाँठोंमें महातल, पंजे
और एडिय़ोंमें रसातल और तलुओंमें पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष
सर्वलोकमय है ॥ ४१ ॥ विराट् भगवान्के अङ्गोंमें इस प्रकार भी लोकोंकी कल्पना की जाती
है कि उनके चरणोंमें पृथ्वी है, नाभिमें भुवर्लोक है और
सिरमें स्वर्लोक है ॥ ४२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे
पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से