॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
सृष्टि-वर्णन
नभसोऽथ
विकुर्वाणाद् अभूत् स्पर्शगुणोऽनिलः ।
परान्वयाच्छब्दवांश्च
प्राण ओजः सहो बलम् ॥ २६ ॥
वायोरपि
विकुर्वाणात् कालकर्मस्वभावतः ।
उदपद्यत
तेजो वै रूपवत् स्पर्शशब्दवत् ॥ २७ ॥
तेजसस्तु
विकुर्वाणाद् आसीत् अम्भो रसात्मकम् ।
रूपवत्
स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात् ॥ २८ ॥
विशेषस्तु
विकुर्वाणाद् अम्भसो गन्धवानभूत् ।
परान्वयाद्
रसस्पर्श शब्दरूपगुणान्वितः ॥ २९ ॥
वैकारिकान्मनो
जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्वि
वह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ॥ ३० ॥
तैजसात्तु
विकुर्वाणाद् इंद्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्तिः
क्रियाशक्तिः बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं
त्वग् घ्राण दृग् जिह्वा वाग् दोर्मेढ्राङ्घ्रिपायवः ॥ ३१ ॥
(ब्रह्माजी
कहते हैं) जब आकाशमें विकार हुआ, तब उससे वायुकी उत्पत्ति हुई;
उसका गुण स्पर्श है। अपने कारणका गुण आ जानेसे यह शब्दवाला भी है।
इन्द्रियोंमें स्फूर्ति, शरीरमें जीवनीशक्ति, ओज और बल इसीके रूप हैं ॥ २६ ॥ काल, कर्म और स्वभावसे
वायुमें भी विकार हुआ। उससे तेजकी उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही
इसके कारण आकाश और वायुके गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं ॥ २७ ॥ तेजके विकारसे
जलकी उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्त्वोंके गुण
शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं ॥ २८ ॥ जलके विकारसे
पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारणके गुण
कार्यमें आते हैं—इस न्यायसे शब्द, स्पर्श,
रूप और रस—ये चारों गुण भी इसमें विद्यमान हैं
॥ २९ ॥ वैकारिक अहंकारसे मनकी और इन्द्रियोंके दस अधिष्ठातृ-देवताओंकी भी उत्पत्ति
हुई। उनके नाम हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार,
अग्रि, इन्द्र, विष्णु,
मित्र और प्रजापति ॥ ३० ॥ तैजस अहंकारके विकारसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रिय—ये
पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और
क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तैजस अहंकारसे ही उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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