॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
सृष्टि-वर्णन
कालं
कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया ।
आत्मन्
यदृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥ २१ ॥
कालाद्
गुणव्यतिकरः परिणामः स्वभावतः ।
कर्मणो
जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितात् अभूत् ॥ २२ ॥
महतस्तु
विकुर्वाणाद् रजःसत्त्वोपबृंहितात् ।
तमःप्रधानस्त्वभवद्
द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ॥ २३ ॥
सोऽहङ्कार
इति प्रोक्तो विकुर्वन्समभूत् त्रिधा ।
वैकारिकस्तैजसश्च
तामसश्चेति यद्भिदा ।
द्रव्यशक्तिः
क्रियाशक्तिः ज्ञानशक्तिरिति प्रभो ॥ २४ ॥
तामसादपि
भूतादेः विकुर्वाणाद् अभूत् नभः ।
तस्य
मात्रा गुणः शब्दो लिङ्गं यद् द्रष्टृदृश्ययोः ॥ २५ ॥
(ब्रह्माजी
कहते हैं) मायापति भगवान् ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने
स्वरूपमें स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर
लिया ॥ २१ ॥ भगवान्की शक्तिसे ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया,
स्वभावने उन्हें रूपान्तरित कर दिया और कर्मने महत्तत्त्वको जन्म
दिया ॥ २२ ॥ रजोगुण और सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर महत्तत्त्वका जो विकार हुआ,
उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तम:प्रधान
विकार हुआ ॥ २३ ॥ वह अहंकार कहलाया और विकारको प्राप्त होकर तीन प्रकारका हो गया।
उसके भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस।
नारदजी ! वे क्रमश: ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और
द्रव्यशक्तिप्रधान हैं ॥ २४ ॥ जब पञ्चमहाभूतोंके कारणरूप तामस अहंकारमें विकार हुआ,
तब उससे आकाशकी उत्पत्ति हुई। आकाशकी तन्मात्रा और गुण शब्द है। इस
शब्दके द्वारा ही द्रष्टा और दृश्यका बोध होता है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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