॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
सृष्टि-वर्णन
सत्त्वं
रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः ।
स्थितिसर्गनिरोधेषु
गृहीता मायया विभोः ॥ १८ ॥
कार्यकारणकर्तृत्वे
द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः ।
बध्नन्ति
नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः ॥ १९ ॥
स
एष भगवान् लिङ्गैः त्रिभिरेतैरधोक्षजः ।
स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन्
सर्वेषां मम चेश्वरः ॥ २० ॥
(ब्रह्माजी
कहते हैं) भगवान् मायाके गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण—ये तीन गुण मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं ॥ १८ ॥ ये ही तीनों
गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर मायातीत
नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामें स्थित होनेपर कार्य, कारण और
कर्तापनके अभिमानसे बाँध लेते हैं ॥ १९ ॥ नारद ! इन्द्रियातीत भगवान् गुणोंके इन
तीन आवरणोंसे अपने स्वरूपको भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये
लोग उनको नहीं जान पाते। सारे संसारके और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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