॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सृष्टि-वर्णन
ब्रह्मोवाच
॥
सम्यक्
कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं
चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने ॥ ९ ॥
नानृतं
तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः ।
अविज्ञाय
परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १० ॥
येन
स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निः
यथा सोमो यथा ऋक्षग्रहतारकाः ॥ ११ ॥
तस्मै
नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया
दुर्जयया मां वदन्ति जगद्गुरुम् ॥ १२ ॥
विलज्जमानया
यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ।
विमोहिता
विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥ १३ ॥
ब्रह्माजीने
कहा—बेटा नारद ! तुमने जीवोंके प्रति करुणा के भावसे भरकर यह बहुत ही सुन्दर
प्रश्र किया है; क्योंकि इससे भगवान् के गुणोंका वर्णन करने
की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ॥ ९ ॥ तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जबतक मुझसे परे का तत्त्व—जो स्वयं भगवान् ही हैं—जान नहीं लिया जाता,
तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ १० ॥ जैसे सूर्य,
अग्रि, चन्द्रमा, ग्रह,
नक्षत्र और तारे उन्हींके प्रकाशसे प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश
फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान्के
चिन्मय प्रकाशसे प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ ११ ॥ उन भगवान्
वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय
मायासे मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ॥ १२ ॥ यह माया तो उनकी आँखों के
सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूरसे ही भाग जाती है। परन्तु
संसार के अज्ञानी जन उसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं ॥ १३॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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