॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौदहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
दिति
का गर्भधारण
इति
तां वीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।
प्रत्याहानुनयन्
वाचा प्रवृद्धानङ्गकश्मलाम् ॥ १५ ॥
एष
तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्याः
कामं न कः कुर्यात् सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ १६ ॥
सर्वाश्रमानुपादाय
स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति
जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १७ ॥
यामाहुरात्मनो
ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां
स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ १८ ॥
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन्
दुर्जयानितराश्रमैः ।
वयं
जयेम हेलाभिः दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ १९ ॥
विदुरजी
! दिति कामदेवके वेगसे अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी
बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यप जी से प्रार्थना की, तब उन्होंने
उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘भीरु ! तुम्हारी
इच्छाके अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम—तीनोंकी सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नीकी कामना कौन
पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ १६ ॥ जिस प्रकार जहाजपर चढक़र मनुष्य
महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे
आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रमद्वारा स्वयं भी दु:खसमुद्र के पार हो जाता
है ॥ १७ ॥ मानिनि ! स्त्री को तो त्रिविध पुरुषार्थकी कामनावाले पुरुषका आधा अङ्ग
कहा गया है। उसपर अपनी गृहस्थीका भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ १८ ॥
इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालोंके लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओं को अपने
अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का
आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहजमें ही जीत लेते हैं ॥१९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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