॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौदहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
दिति
का गर्भधारण
न
वयं प्रभवस्तां त्वां अनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा
वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ २० ॥
अथापि
काममेतं ते प्रजात्यै करवाण्यलम् ।
यथा
मां नातिरोचन्ति मुहूर्तं प्रतिपालय ॥ २१ ॥
एषा
घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति
यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ २२ ॥
एतस्यां
साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।
परीतो
भूतपर्षद्भिः वृषेणाटति भूतराट् ॥ २३ ॥
श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र
विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो
देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ २४ ॥
न
यस्य लोके स्वजनः परो वा
नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।
वयं
व्रतैर्यत् चरणापविद्धां
आशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ २५ ॥
(कश्यपजी
दिति से कहरहे हैं) गृहेश्वरि ! तुम-जैसी भार्याके उपकारों का बदला तो हम अथवा और
कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तरमें भी पूर्णरूप से नहीं
चुका सकते ॥ २० ॥ तो भी तुम्हारी इस सन्तान-प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति
अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ॥ २१ ॥ यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर
जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान् भूतनाथ के गण
भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं ॥ २२ ॥ साध्वि ! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति
भगवान् शङ्कर अपने गण भूत- प्रेतादि को साथ लिये बैलपर चढक़र विचरा करते हैं ॥ २३
॥ जिनका जटाजूट श्मशानभूमि से उठे हुए बवंडरकी धूलिसे धूसरित होकर देदीप्यमान हो
रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीरमें भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंसे सभीको देखते रहते हैं ॥ २४ ॥ संसारमें
उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हमलोग तो
अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन करके उनकी मायाको ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment