Sunday, September 9, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

सृष्टिका विस्तार

रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद् ग्रसतां जगत् ।
निशाम्यासंख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत ॥ १६ ॥
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिः ईदृशीभिः सुरोत्तम ।
मया सह दहन्तीभिः दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः ॥ १७ ॥
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम् ।
तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥ १८ ॥
तपसैव परं ज्योतिः भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतगुहावासं अञ्जसा विन्दते पुमान् ॥ १९ ॥

मैत्रेय उवाच ।

एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम् ।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम् ॥ २० ॥

भगवान्‌ रुद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शङ्का हुई ॥ १६ ॥ तब उन्होंने रुद्रसे कहा, ‘सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अत: ऐसी सृष्टि और न रचो ॥ १७ ॥ तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना ॥ १८ ॥ पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योति:स्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है॥ १९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैंजब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने बहुत अच्छाकहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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