॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
दस
प्रकार की सृष्टि का वर्णन
विदुर
उवाच –
यथात्थ
बहुरूपस्य हरेरद्भुतकर्मणः ।
कालाख्यं
लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो ॥ १० ॥
मैत्रेय
उवाच –
गुणव्यतिकराकारो
निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः ।
पुरुषः
तदुपादानं आत्मानं लीलयासृजत् ॥ ११ ॥
विश्वं
वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।
ईश्वरेण
परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥ १२ ॥
विदुरजीने
कहा—ब्रह्मन् ! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति की
बात कही थी, प्रभो ! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये
॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष,
अनादि और अनन्त है। उसीको निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेल में
अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं ॥ ११ ॥ पहले यह सारा विश्व
भगवान् की मायासे लीन होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसीको अव्यक्तमूर्ति काल के
द्वारा भगवान् ने पुन: पृथक् रूप से प्रकट किया है ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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