Tuesday, August 28, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

विदुर उवाच –

यथात्थ बहुरूपस्य हरेरद्‍भुतकर्मणः ।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो ॥ १० ॥

मैत्रेय उवाच –

गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः ।
पुरुषः तदुपादानं आत्मानं लीलयासृजत् ॥ ११ ॥
विश्वं वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।
ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥ १२ ॥

विदुरजीने कहाब्रह्मन् ! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति की बात कही थी, प्रभो ! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाविषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसीको निमित्त बनाकर भगवान्‌ खेल-खेल में अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं ॥ ११ ॥ पहले यह सारा विश्व भगवान्‌ की मायासे लीन होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसीको अव्यक्तमूर्ति काल के द्वारा भगवान्‌ ने पुन: पृथक् रूप से प्रकट किया है ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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