॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
दस
प्रकार की सृष्टि का वर्णन
यथेदानीं
तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम् ।
सर्गो
नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः ॥ १३ ॥
कालद्रव्यगुणैरस्य
त्रिविधः प्रतिसङ्क्रमः ।
आद्यस्तु
महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः ॥ १४ ॥
द्वितीयस्त्वहमो
यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः ।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु
तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान् ॥ १५ ॥
चतुर्थ
ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मकः ।
वैकारिको
देवसर्गः पञ्चमो यन्मयं मनः ॥ १६ ॥
षष्ठस्तु
तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभोः ।
षडिमे
प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे श्रृणु ॥ १७ ॥
यह
जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ
प्रकारकी होती है तथा प्राकृत-वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है ॥ १३ ॥ और
इसका प्रलय काल,
द्रव्य तथा गुणोंके द्वारा तीन प्रकारसे होता है। (अब पहले मैं दस
प्रकारकी सृष्टिका वर्णन करता हूँ।) पहली सृष्टि महत्तत्त्व की है। भगवान् की
प्रेरणा से सत्त्वादि गुणोंमें विषमता होना ही इसका स्वरूप है ॥ १४ ॥ दूसरी सृष्टि
अहंकार की है, जिससे पृथ्वी आदि पञ्चभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय
और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पञ्चमहाभूतों को उत्पन्न करनेवाला तन्मात्रवर्ग रहता है ॥ १५ ॥
चौथी सृष्टि इन्द्रियों की है, यह ज्ञान और क्रियाशक्ति से
सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए
इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओंकी है, मन भी इसी सृष्टिके
अन्तर्गत है ॥ १६ ॥ छठी सृष्टि अविद्याकी है। इसमें तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और
महामोह—ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवोंकी बुद्धिका आवरण और
विक्षेप करनेवाली है। ये छ: प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत
सृष्टियोंका भी विवरण सुनो ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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