॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
दस
प्रकार की सृष्टि का वर्णन
तपसा
हि एधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया ।
विवृद्धविज्ञानबलो
न्यपाद् वायुं सहाम्भसा ॥ ६ ॥
तद्विलोक्य
वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम् ।
अनेन
लोकान्प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत् ॥ ७ ॥
पद्मकोशं
तदाविश्य भगवत्कर्मचोदितः ।
एकं
व्यभाङ्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तधा ॥ ८ ॥
एतावान्
जीवलोकस्य संस्थाभेदः समाहृतः ।
धर्मस्य
ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ ॥ ९ ॥
प्रबल
तपस्या एवं हृदय में स्थित आत्मज्ञान से उनका(ब्रह्माजी का) विज्ञानबल बढ़ गया। और
उन्होंने जलके साथ वायु को पी लिया ॥ ६ ॥ फिर जिसपर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाश- व्यापी कमलको देखकर उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्पमें लीन हुए लोकों को मैं इसी से रचूँगा’ ॥
७ ॥ तब भगवान् के द्वारा सृष्टिकार्य में नियुक्त ब्रह्माजी ने उस कमलकोशमें
प्रवेश किया और उस एक के ही भू:, भुव:, स्व:—ये तीन भाग किये, यद्यपि
वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकों के रूप में विभाग
किये जा सकते थे ॥ ८ ॥ जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्हीं तीन लोकों का
शास्त्रों में वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं,
उन्हें मह:, तप:, जन: और
सत्यलोकरूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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