Tuesday, August 28, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन

रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्विधस्तस्थुषां च यः ॥ १८ ॥
वनस्पत्योषधिलता त्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः ।
उत्स्रोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः ॥ १९ ॥
तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः ।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः ॥ २० ॥

जो भगवान्‌ अपना चिन्तन करनेवालों के समस्त दु:खों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है। वे ही ब्रह्मा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत् की रचना करते हैं। छ: प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छ: प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है ॥ १८ ॥ वनस्पति, औषधि, लता, त्वक्सार, विरुध् और द्रुम इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपरकी और होता है, इनमें प्राय ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर ही भीतर केवल स्पर्शका अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कोई विशेष गुण रहता है ॥१९॥ आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुणी अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना अदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके हृदय मे विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती ॥२०॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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