॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
विदुरजीके
प्रश्र
सृष्ट्वाग्रे
महदादीनि सविकाराणि अनुक्रमात् ।
तेभ्यो
विराजं उद्धृत्य तमनु प्राविशद्विभुः ॥ २१ ॥
यमाहुराद्यं
पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम् ।
यत्र
विश्व इमे लोकाः सविकाशं समासते ॥ २२ ॥
यस्मिन्
दशविधः प्राणः सेन्द्रियार्थेन्द्रियः त्रिवृत् ।
त्वयेरितो
यतो वर्णाः तद्विभूतीर्वदस्व नः ॥ २३ ॥
यत्र
पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः ।
प्रजा
विचित्राकृतय आसन्याभिरिदं ततम् ॥ २४ ॥
प्रजापतीनां
स पतिः चकॢपे कान् प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च
मनून् मन्वन्तराधिपान् ॥ २५ ॥
(विदुरजी
कहते हैं) भगवन् ! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने क्रमश: महदादि
तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट्को उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें
प्रविष्ट हो गये ॥ २१ ॥ उन विराट्के हजारों पैर, जाँघें और
बाँहें हैं; उन्हींको वेद आदिपुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृतरूप से स्थित हैं ॥ २२ ॥ उन्हीं में इन्द्रिय,
विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओंके सहित दस प्रकार के प्राणों का—जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन
प्रकार के हैं— आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि
वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियोंका वर्णन सुनाइये—जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और
कुटुम्बियोंके सहित तरह-तरहकी प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर
गया ॥ २३-२४ ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियोंका भी प्रभु है। उसने किन-किन
प्रजापतियोंको उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और
मन्वन्तरोंके अधिपति मनुओंकी भी किस क्रमसे रचना की ? ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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