॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
विदुरजीके
प्रश्र
एतेषामपि
वंशांश्च वंशानुचरितानि च ।
उपर्यधश्च
ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६ ॥
तेषां
संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य च वर्णय ।
तिर्यङ्मानुषदेवानां
सरीसृप पतत्त्रिणाम् ।
वद
नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य
सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः
श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८ ॥
वर्णाश्रमविभागांश्च
रूपशीलस्वभावतः ।
ऋषीणां
जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम् ॥ २९ ॥
यज्ञस्य
च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य
च साङ्ख्यस्य तंत्रं वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३० ॥
पाषण्डपथवैषम्यं
प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य
गतयो याश्च यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१ ॥
(विदुरजी
कहरहे हैं) मैत्रेयजी ! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी
वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी
तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ श्रीहरिने
सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये
अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूपसे जो कल्याणकारी
लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ २८ ॥ वेष, आचरण और स्वभावके अनुसार वर्णाश्रमका विभाग, ऋषियोंके
जन्म- कर्मादि, वेदोंका विभाग, यज्ञोंका
विस्तार, योगका मार्ग, ज्ञानमार्ग और
उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान्के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र,
विभिन्न पाखण्डमार्गों के प्रचार से होनेवाली विषमता, नीचवर्ण के पुरुष से उच्चवर्ण की स्त्रीमें होनेवाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न
गुण और कर्मोंके कारण जीव की जैसी और
जितनी गतियाँ, होती हैं, वे सब हमें
सुनाइये ॥ २९—३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment