॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
विदुरजीके
प्रश्र
यश्च
मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ
सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ १७ ॥
अर्थाभावं
विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि नात्मनः ।
तां
चापि युष्मच्चरण सेवयाहं पराणुदे ॥ १८ ॥
यत्सेवया
भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।
रतिरासो
भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९ ॥
दुरापा
ह्यल्पतपसः सेवा वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते
नित्यं देवदेवो जनार्दनः ॥ २० ॥
इस
संसारमें दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त
मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं, या जो बुद्धि आदि से अतीत
श्रीभगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। बीचकी श्रेणीके संशयापन्न लोग तो दु:ख ही
भोगते रहते हैं ॥ १७ ॥ भगवन् ! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म
पदार्थ वस्तुत: हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं । अब मैं
आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा ॥ १८ ॥ इन श्रीचरणों की
सेवा से नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्कट प्रेम और आनन्दकी वृद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणाका नाश कर देती है ॥ १९ ॥ महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति
के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव
श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुषको
उनकी सेवाका अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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