॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - छठा
अध्याय..(पोस्ट०५)
विराट्
शरीर की उत्पत्ति
हस्तावस्य
विनिर्भिन्नौ इन्द्रः स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन
पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१ ॥
पादौ
अवस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या
स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२ ॥
बुद्धिं
चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो धिष्ण्यमाविशत् ।
बोधेनांशेन
बोद्धव्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ २३ ॥
हृदयं
चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्ण्यमाविशत् ।
मनसांशेन
येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥ २४ ॥
आत्मानं
चास्य निर्भिन्नं अभिमानोऽविशत्पदम् ।
कर्मणांशेन
येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
सत्त्वं
चास्य विनिर्भिन्नं महान् धिष्ण्यमुपाविशत् ।
चित्तेनांशेन
येनासौ विज्ञानं प्रतिपद्यते ॥ २६ ॥
इसके
पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा
शक्तिके सहित देवराज इन्द्रने प्रवेश किया, इस शक्तिसे जीव
अपनी जीविका प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णुने प्रवेश किया—इस गति-शक्तिद्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचता है ॥ २२ ॥ फिर इसके
बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थानमें अपने अंश
बुद्धिशक्तिके साथ वाक्पति ब्रह्माने प्रवेश किया, इस
बुद्धिशक्तिसे जीव ज्ञातव्य विषयोंको जान सकता है ॥ २३ ॥ फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ;
उसमें अपने अंश मनके सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मन:शक्तिके द्वारा
जीव सङ्कल्प-विकल्पादिरूप विकारोंको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ तत्पश्चात् विराट् पुरुषमें अहंकार उत्पन्न हुआ;
इस अपने आश्रयमें क्रियाशक्तिसहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया।
इससे जीव अपने कर्तव्यको स्वीकार करता है ॥ २५ ॥ अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें
चित्तशक्तिके सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस
चित्तशक्तिसे जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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