॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - छठा
अध्याय..(पोस्ट०६)
विराट्
शरीर की उत्पत्ति
शीर्ष्णोऽस्य
द्यौर्धरा पद्भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।
गुणानां
वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥ २७ ॥
आत्यन्तिकेन
सत्त्वेन दिवं देवाः प्रपेदिरे ।
धरां
रजःस्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥ २८ ॥
तार्तीयेन
स्वभावेन भगवन् नाभिमाश्रिताः ।
उभयोरन्तरं
व्योम ये रुद्रपार्षदां गणाः ॥ २९ ॥
इस
विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और
नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमश: सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ इनमें देवतालोग सत्त्वगुण की
अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि
जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाववाले होने से रुद्र के
पार्षदगण (भूत, प्रेत आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के
नाभिस्थानीय अन्तरिक्षलोक में रहते हैं ॥ २८-२९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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