॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - छठा
अध्याय..(पोस्ट०४)
विराट्
शरीर की उत्पत्ति
निर्भिन्नान्यस्य
चर्माणि लोकपालोऽनिलोऽविशत् ।
प्राणेनांशेन
संस्पर्शं येनासौ प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥
कर्णौ
अस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिशः ।
श्रोत्रेणांशेन
शब्दस्य सिद्धिं येन प्रपद्यते ॥ १७ ॥
त्वचमस्य
विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधीः ।
अंशेन
रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥
मेढ्रं
तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।
रेतसांशेन
येनासौ आनन्दं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥
गुदं
पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।
पायुनांशेन
येनासौ विसर्गं प्रतिपद्यते ॥ २० ॥
फिर
उस विराट् विग्रहमें त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश
त्वगिन्द्रिय के सहित वायु स्थित हुआ, जिस त्वगिन्द्रिय से
जीव स्पर्श का अनुभव करता है ॥ १६ ॥ जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उनमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है ॥ १७ ॥ फिर विराट्
शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित
ओषधियाँ स्थित हुर्ईं, जिन रोमोंसे जीव खुजली आदिको अनुभव
करता है ॥ १८ ॥ अब उसके लिङ्ग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने
अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव
करता है ॥ १९ ॥ फिर विराट् पुरुषके गुदा प्रकट हुई; उसमें
लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मलत्याग करता है ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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