॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
विदुरजीके
प्रश्र
धर्मार्थकाममोक्षाणां
निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया
दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च विधिं पृथक् ॥ ३२ ॥
श्राद्धस्य
च विधिं ब्रह्मन् पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां
कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३ ॥
दानस्य
तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः फलम् ।
प्रवासस्थस्य
यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥ ३४ ॥
येन
वा भगवान् तुस्तुष्येद् धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति
वा येषां एतत् आख्याहि मेऽनघ ॥ ३५ ॥
अनुव्रतानां
शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि
ब्रूयुः गुरवो दीनवत्सलाः ॥ ३६ ॥
तत्त्वानां
भगवन् तेषां कतिधा प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं
क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ ३७ ॥
ब्रह्मन्
! धर्म,
अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके परस्पर
अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति
और शास्त्रश्रवणकी विधियोंका, श्राद्धकी विधिका, पितृगणोंकी सृष्टिका तथा कालचक्रमें ग्रह, नक्षत्र
और तारागणकी स्थितिका भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का
क्या फल है ?
प्रवास और आपत्तिके समय मनुष्यका क्या धर्म होता है ? ॥ ३४ ॥ निष्पाप मैत्रेयजी ! धर्मके मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस
आचरणसे सन्तुष्ट होते हैं और किनपर अनुग्रह करते हैं, यह
वर्णन कीजिये ॥ ३५ ॥ द्विजवर ! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रोंको
बिना पूछे भी उनके हितकी बात बतला दिया करते हैं ॥ ३६ ॥ भगवन् ! उन महदादि
तत्त्वोंका प्रलय कितने प्रकारका है ? तथा जब भगवान्
योगनिद्रामें शयन करते हैं, तब उनमेंसे कौन-कौन तत्त्व उनकी
सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ ३७ ॥
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