॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
विदुरजीके
प्रश्र
पुरुषस्य
च संस्थानं स्वरूपं वा परस्य च ।
ज्ञानं
च नैगमं यत्तद् गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
निमित्तानि
च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभिः ।
स्वतो
ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९ ॥
एतान्मे
पृच्छतः प्रश्नान् हरेः कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि
मेऽज्ञस्य मित्रत्वात् अजया नष्टचक्षुषः ॥ ४० ॥
सर्वे
वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य
न कुर्वीरन् कलामपि ॥ ४१ ॥
श्रीशुक
उवाच –
स
इत्थं आपृष्टपुराणकल्पः
कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो
भगवत्कथायां
सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२ ॥
जीवका
तत्त्व,
परमेश्वरका स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान
तथा गुरु और शिष्यका पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ ३८ ॥
पवित्रात्मन् विद्वानोंने उस ज्ञानकी प्राप्तिके क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ?
क्योंकि मनुष्योंको ज्ञान, भक्ति अथवा
वैराग्यकी प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ॥ ३९ ॥ ब्रह्मन् ! माया-मोहके कारण
मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे
परम सुहृद् हैं; अत: श्रीहरिलीलाका ज्ञान प्राप्त करनेकी
इच्छासे मैंने जो प्रश्र किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये ॥
४० ॥ पुण्यमय मैत्रेयजी ! भगवत्तत्त्वके उपदेशद्वारा जीवको जन्म-मृत्युसे छुड़ाकर
उसे अभय कर देनेमें जो पुण्य होता है, समस्त वेदोंके अध्ययन,
यज्ञ, तपस्या और दानादिसे होनेवाला पुण्य उस
पुण्यके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार
पुराणविषयक प्रश्र किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये
जानेके कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे ॥ ४२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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