॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
मैत्रेय
उवाच -
सत्सेवनीयो
बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः ।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ १ ॥
सोऽहं
नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्गतानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये
भागवतं पुराणं
यदाह साक्षात् भगवान् ऋषिभ्यः ॥ २ ॥
आसीनमुर्व्यां
भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमतः
परस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन् ॥ ३ ॥
स्वमेव
धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यद् वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्
उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधुपुरुषों के लिये भी सेव्य
हो गया है। धन्य हैं ! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिकी कीर्तिमयी मालाको नित्य नूतन
बना रहे हैं ॥ १ ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से
महान् दु:ख को मोल लेने वाले पुरुषों की दु:खनिवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं
श्रीसङ्कर्षण भगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ २ ॥
अखण्ड
ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् सङ्कर्षण पाताललोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि
ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिये उनसे प्रश्न किया ॥ ३ ॥
उस समय शेषजी अपने आश्रयस्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे। जिनका वेद वासुदेव
के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश-सरीखे नेत्र बन्द थे। प्रश्न करने पर
सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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