॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - छठा
अध्याय..(पोस्ट०७)
विराट्
शरीर की उत्पत्ति
मुखतोऽवर्तत
ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद्
वर्णानां मुख्योऽभूद् ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३० ॥
बाहुभ्योऽवर्तत
क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुव्रतः ।
यो
जातस्त्रायते वर्णान् पौरुषः कण्टकक्षतात् ॥ ३१ ॥
विशोऽवर्तन्त
तस्योर्वोः लोकवृत्तिकरीर्विभोः ।
वैश्यस्तदुद्भवो
वार्तां नृणां यः समवर्तयत् ॥ ३२ ॥
पद्भ्यां
भगवतो जज्ञे शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।
तस्यां
जातः पुरा शूद्रो यद्वृत्त्या तुष्यते हरिः ॥ ३३ ॥
एते
वर्णाः स्वधर्मेण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।
श्रद्धया
आत्मविशुद्ध्यर्थं यज्जाताः सह वृत्तिभिः ॥ ३४ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं) विदुरजी ! वेद और ब्राह्मण भगवान् के मुखसे प्रकट हुए। मुखसे प्रकट
होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सब का गुरु है ॥ ३० ॥ उनकी
भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करनेवाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के
उपद्रवों से रक्षा करता है ॥ ३१ ॥ भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगोंका निर्वाह
करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हींसे वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ।
यह वर्ण अपनी वृत्तिसे सब जीवोंकी जीविका चलाता है ॥ ३२ ॥ फिर सब धर्मोंकी
सिद्धिके लिये भगवान्के चरणोंसे सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस
वृत्ति का अधिकारी शूद्रवर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से
ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं [*] ॥ ३३ ॥ ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियोंके
सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरिका
अपने-अपने धर्मोंसे चित्तशुद्धिके लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं ॥ ३४ ॥
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[*] सब धर्मोंकी सिद्धिका मूल सेवा है, सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अत: सब धर्मोंकी मूलभूता
सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णोंमें महान् है।
ब्राह्मणका धर्म मोक्षके लिये है, क्षत्रियका धर्म भोगके
लिये है, वैश्यका धर्म अर्थके लिये है और शूद्रका धर्म
धर्मके लिये है। इस प्रकार प्रथम तीन वर्णोंके धर्म अन्य पुरुषार्थोंके लिये हैं,
किन्तु शूद्रका धर्म स्वपुरुषार्थके लिये है; अत:
इसकी वृत्तिसे ही भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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