॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०६)
उद्धवजी
द्वारा भगवान् की बाललीलाओं का वर्णन
स्वयं
त्वसाम्यातिशयस्त्र्यधीशः
स्वाराज्यलक्ष्म्याप्तसमस्तकामः ।
बलिं
हरद्भिश्चिरलोकपालैः
किरीटकोट्येडितपादपीठः ॥ २१ ॥
तत्तस्य
कैङ्कर्यमलं भृतान्नो
विग्लापयत्यङ्ग यदुग्रसेनम् ।
तिष्ठन्निषण्णं
परमेष्ठिधिष्ण्ये
न्यबोधयद्देव निधारयेति ॥ २२ ॥
अहो
बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे
गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥ २३ ॥
मन्येऽसुरान्
भागवतांस्त्र्यधीशे
संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् ।
ये
संयुगेऽचक्षत ताऱ्यपुत्र
मंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ॥ २४ ॥
(उद्धवजी
कहरहे हैं) स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई
नहीं है,
उनसे बढक़र तो कौन होगा। वे अपने स्वत:सिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा
पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटें ला-लाकर अपने-अपने
मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौकी को प्रणाम किया करते हैं ॥ २१ ॥
विदुरजी ! वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े
होकर निवेदन करते थे, ‘देव ! हमारी प्रार्थना सुनिये।’
उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त
व्यथित हो जाता है ॥ २२ ॥ पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर
श्रीकृष्ण को मार डालने की नीयत से उन्हें दूध पिलाया था; उसको
भी भगवान् ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन
भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण
ग्रहण करें ॥ २३ ॥ मैं असुरों को भी भगवान् का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में लगा रहता
था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन-चक्रधारी भगवान् को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए
गरुडजी के दर्शन हुआ करते थे ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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