॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०२)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
अथापि
तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम् ।
पृष्ठतोऽन्वगमं
भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५ ॥
अद्राक्षमेकमासीनं
विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं
सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६ ॥
श्यामावदातं
विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिः
विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ७ ॥
वाम
ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थं
अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८ ॥
तस्मिन्
महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।
लोकान्
अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९ ॥
तस्यानुरक्तस्य
मुनेर्मुकुन्दः
प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आश्रृण्वतो
मां अनुरागहास
समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥ १० ॥
(उद्धवजी
कहते हैं) विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका(भगवान का) आशय समझ गया था, तो भी स्वामीके चरणोंका वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे
प्रभासक्षेत्रमें पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु
जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम
श्यामसुन्दर सरस्वती के तटपर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय
अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्तिसे भरी रतनारी आँखें
हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूरसे ही पहचान लिया ॥ ७
॥ वे एक पीपलके छोटे-से वृक्षका सहारा लिये बायीं जाँघपर दायाँ चरणकमल रखे बैठे
थे। भोजन-पानका त्याग कर देनेपर भी वे आनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय
व्यासजीके प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरते हुए
वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान्के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और
भक्तिभावसे उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरिने प्रेम एवं मुसकानयुक्त
चितवनसे मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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