॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०१)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
उद्धव
उवाच -
अथ
ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया
विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १ ॥
तेषां
मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति
रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥
भगवान्
स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः ।
सरस्वतीं
उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३ ॥
अहं
चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।
बदरीं
त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४ ॥
उद्धवजीने
कहा—फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी।
उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनोंसे एक दूसरेके हृदयको चोट पहुँचाने
लगे ॥ १ ॥ मदिराके नशेसे उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपसकी रगड़से बाँसोंमें आग
लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट
होने लगी ॥ २ ॥ भगवान् अपनी मायाकी उस विचित्र गतिको देखकर सरस्वती के जलसे आचमन
करके एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दु:ख दूर करने वाले
भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था
कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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