Sunday, May 20, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

श्रीभगवानुवाच –
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
     ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
     मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११ ॥
स एष साधो चरमो भवानां
     आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
     दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
     पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
     यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥

श्रीभगवान्‌ कहने लगेमैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव ! तुम पूर्व-जन्ममें वसु थे। विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओंके यज्ञमें मुझे पानेकी इच्छासे ही तुमने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! संसारमें तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मृत्युलोकको छोडक़र अपने धाममें जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्तमें तुमने अपनी अनन्य भक्तिके कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकालमें पाद्मकल्पके आरम्भमें मैंने अपने नाभि-कमलपर बैठे हुए ब्रह्माको अपनी महिमाके प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग भागवतकहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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