॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- छठा
अध्याय..(पोस्ट०२)
विराट्स्वरूपकी
विभूतियोंका वर्णन
त्वगस्य
स्पर्शवायोश्च सर्व मेधस्य चैव हि ।
रोमाणि
उद्भिज्ज जातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः ॥ ४ ॥
केश
श्मश्रु नखान्यस्य शिलालोहाभ्र विद्युताम् ।
बाहवो
लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ॥ ५ ॥
विक्रमो
भूर्भुवःस्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकाम
वरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥ ६ ॥
अपां
वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
पुंसः
शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द निर्वृतेः ॥ ७ ॥
पायुर्यमस्य
मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।
हिंसाया
निर्ऋतेर्मृत्यो निरयस्य गुदः स्मृतः ॥ ८ ॥
पराभूतेः
अधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः ।
नाड्यो
नदनदीनां च गोत्राणां अस्थिसंहतिः ॥ ९ ॥
(ब्रह्माजी कहते हैं) सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी (विराट् पुरुष की) त्वचासे निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थोंके जन्मस्थान हैं, अथवा
केवल उन्हींके, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥ ४ ॥ उनके केश,
दाढ़ी-मूँछ और नखोंसे मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओंसे प्राय: संसारकी रक्षा करनेवाले
लोकपाल प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥ उनका चलना-फिरना भू:, भुव:,
स्व:—तीनों लोकोंका आश्रय है। उनके चरणकमल
प्राप्तकी रक्षा करते हैं और भयोंको भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति
उन्हींसे होती है ॥ ६ ॥ विराट् पुरुषका लिङ्ग जल, वीर्य,
सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी
जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है ॥ ७ ॥ नारद जी ! विराट् पुरुषकी
पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्यागका तथा गुदाद्वार हिंसा,
निर्ऋति, मृत्यु और नरकका उत्पत्तिस्थान है ॥
८ ॥ उनकी पीठसे पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाडिय़ोंसे नद-नदी और हड्डियोंसे पर्वतोंका निर्माण हुआ है ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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