॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
राजा
परीक्षित् के विविध प्रश्र
यथात्मतन्त्रो
भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया ।
विसृज्य
वा यथा मायां उदास्ते साक्षिवद्विभुः ॥ २३ ॥
सर्वमेतच्च
भगवन् पृच्छतो मेऽनुपूर्वशः ।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं
प्रपन्नाय महामुने ॥ २४ ॥
अत्र
प्रमाणं हि भवान् परमेष्ठी यथात्मभूः ।
अपरे
चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम् ॥ २५ ॥
न
मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन् अनशनादमी ।
पिबतोऽच्युतपीयूषं
अन्यत्र कुपिताद् द्विजात् ॥ २६ ॥
श्रीसूत
उवाच
स
उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः ।
ब्रह्मरातो
भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥ २७ ॥
प्राह
भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
ब्रह्मणे
भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते ॥ २८ ॥
यद्यत्
परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति ।
आनुपूर्व्येण
तत्सर्वं आख्यातुमुपचक्रमे ॥ २९ ॥
भगवान्
तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी मायासे किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोडक़र
साक्षीके समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? ॥ २३ ॥ भगवन् ! मैं
यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरणमें हूँ। महामुने ! आप कृपा करके क्रमश: इनका
तात्त्विक निरूपण कीजिये ॥ २४ ॥ इस विषयमें आप स्वयम्भू ब्रह्माके समान परम प्रमाण
हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परासे सुनी-सुनायी बातोंका ही अनुष्ठान करते हैं
॥ २५ ॥ ब्रह्मन् आप मेरी भूख-प्यासकी चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मणके
शापके अतिरिक्त और किसी कारणसे निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं
आपके मुखारविन्दसे निकलनेवाली भगवान्की अमृतमयी लीला-कथाका पान कर रहा हूँ ॥ २६ ॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्ने संतोंकी सभामें भगवान्की लीलाकथा
सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीको
बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ २७ ॥ उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण
सुनाया, जो ब्राह्मकल्पके आरम्भमें स्वयं भगवान्ने
ब्रह्माजीको सुनाया था ॥ २८ ॥ पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित्ने उनसे जो-जो प्रश्र
किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमश: देने लगे ॥ २९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे
अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से